पुष्प की
अभिलाषा
चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ,
चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ।
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पर जावें वीर अनेक
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ,
चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ।
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पर जावें वीर अनेक
- माखनलाल
चतुर्वेदी
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ
सोचा करता बैठ अकेले,
गत जीवन के सुख-दुख झेले,
दंशनकारी सुधियों से
मैं उर के छाले सहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!
नहीं खोजने जाता मरहम,
होकर अपने प्रति अति
निर्मम,
उर के घावों को आँसू
के खारे जल से नहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!
आह निकल मुख से जाती
है,
मानव की ही तो छाती है,
लाज नहीं मुझको देवों
में यदि मैं दुर्बल कहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!
उस पार न
जाने क्या होगा
इस पार, प्रिये
मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उदित होकर नभ
में
कुछ ताप मिटाता जीवन
का,
लहरालहरा यह शाखाएँ
कुछ शोक भुला देती मन
का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ
हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी
पर से
संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले
मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का
उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये
मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
जग में रस की नदियाँ
बहती,
रसना दो बूंदें पाती
है,
जीवन की झिलमिलसी झाँकी
नयनों के आगे आती है,
स्वरतालमयी वीणा बजती,
मिलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमनों की गंध कहीं
यह वायु उड़ा ले जाती
है;
ऐसा सुनता, उस
पार, प्रिये,
ये साधन भी छिन जाएँगे;
तब मानव की चेतनता का
आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये
मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
प्याला है पर पी पाएँगे,
है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार नियति ने भेजा
है,
असमर्थबना कितना हमको,
कहने वाले, पर
कहते है,
हम कर्मों में स्वाधीन
सदा,
करने वालों की परवशता
है ज्ञात किसे, जितनी
हमको?
कह तो सकते हैं, कहकर
ही
कुछ दिल हलका कर लेते
हैं,
उस पार अभागे मानव का
अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये
मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
कुछ भी न किया था जब
उसका,
उसने पथ में काँटे बोये,
वे भार दिए धर कंधों
पर,
जो रो-रोकर हमने ढोए;
महलों के सपनों के भीतर
जर्जर खँडहर का सत्य
भरा,
उर में ऐसी हलचल भर दी,
दो रात न हम सुख से सोए;
अब तो हम अपने जीवन भर
उस क्रूर कठिन को कोस
चुके;
उस पार नियति का मानव
से
व्यवहार न जाने क्या
होगा!
इस पार, प्रिये
मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
संसृति के जीवन में, सुभगे
ऐसी भी घड़ियाँ आएँगी,
जब दिनकर की तमहर किरणे
तम के अन्दर छिप जाएँगी,
जब निज प्रियतम का शव, रजनी
तम की चादर से ढक देगी,
तब रवि-शशि-पोषित यह
पृथ्वी
कितने दिन खैर मनाएगी!
जब इस लंबे-चौड़े जग
का
अस्तित्व न रहने पाएगा,
तब हम दोनो का नन्हा-सा
संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये
मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
ऐसा चिर पतझड़ आएगा
कोयल न कुहुक फिर पाएगी,
बुलबुल न अंधेरे में
गागा
जीवन की ज्योति जगाएगी,
अगणित मृदु-नव पल्लव
के स्वर
‘मरमर’ न सुने फिर जाएँगे,
अलि-अवली कलि-दल पर गुंजन
करने के हेतु न आएगी,
जब इतनी रसमय ध्वनियों
का
अवसान, प्रिये, हो
जाएगा,
तब शुष्क हमारे कंठों
का
उद्गार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये
मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
सुन काल प्रबल का गुरु-गर्जन
निर्झरिणी भूलेगी नर्तन,
निर्झर भूलेगा निज ‘टलमल’,
सरिता अपना ‘कलकल’ गायन,
वह गायक-नायक सिन्धु
कहीं,
चुप हो छिप जाना चाहेगा,
मुँह खोल खड़े रह जाएँगे
गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण;
संगीत सजीव हुआ जिनमें,
जब मौन वही हो जाएँगे,
तब, प्राण, तुम्हारी
तंत्री का
जड़ तार न जाने क्या
होगा!
इस पार, प्रिये
मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
उतरे इन आखों के आगे
जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा, देखो, माली,
सुकुमार लताओं के गहने,
दो दिन में खींची जाएगी
ऊषा की साड़ी सिन्दूरी,
पट इन्द्रधनुष का सतरंगा
पाएगा कितने दिन रहने;
जब मूर्तिमती सत्ताओं
की
शोभा-सुषमा लुट जाएगी,
तब कवि के कल्पित स्वप्नों
का
श्रृंगार न जाने क्या
होगा!
इस पार, प्रिये
मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
दृग देख जहाँ तक पाते
हैं,
तम का सागर लहराता है,
फिर भी उस पार खड़ा कोई
हम सब को खींच बुलाता
है;
मैं आज चला तुम आओगी
कल, परसों
सब संगीसाथी,
दुनिया रोती-धोती रहती,
जिसको जाना है, जाता
है;
मेरा तो होता मन डगडग,
तट पर ही के हलकोरों
से!
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा
मँझधार, न
जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये
मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!